72वें गणतंत्र दिवस को राजधानी में कोई विदेशी मुख्य अतिथि नहीं आया लेकिन आया किसानों का सैलाब
- Jan 26, 2021
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पत्रकारिता जो लोकतंत्र की सत्तात्मक परिधि से बाहर एक स्वतंत्र व्यवस्था है उसे इतना प्रभावशाली माना गया कि २०वीं सदी के विचारक और रजनेताओं ने इसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ करार दे दिया। लेकिन संचार क्रांति के युग में पत्रकारिता औंधे मुँह खड़ी हो गयी है। सत्ता की गिरेबान थामने वाले हाथ अन्नदाताओं की हलग तक पहुँच गए हैं।

आज भी सड़क पर दुर्घटना होने पर बड़े वाहन चालक को ग़लत और छोटे वाहन चालक को पीड़ित माना जाता है। यानी जन मानस में ये धारणा है की शक्ति दमनकारी और शक्तिहीन निरीह होता है। भीड़ हमेशा शक्ति से सवाल करती है क्यूँकि शक्तिविहीन खुद सवाल करने के लिए निशक्त होता है। वर्तमान व्यवस्था में ये काम पत्रकारिता के ज़िम्मे था, लेकिन आज की दरबारी कलम ने पीड़ित को ही कठघरे में ठूँस दिया है। सत्ता के सिखाए सवाल किसानों से पूँछ रही है। जिधर पींठ होनी चाहिए थी उधर जीभ लटकाए, हाथ जोड़े खड़े हैं और जिधर आँखें होनी चाहिए थी उधर भौंक रहें हैं।
आज 72वें गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली में जो कुछ भी घटित हुआ उसमें लोकतंत्र के सारे स्तम्भ एक दूसरे के सहारे टंगे हुए थे और लोकतंत्र हाशिए पर बिलख़ रहा था। भूख मिटाने वालों के सवालों को देशद्रोह साबित कर दिया गया है। पिछले 61 दिनों से अन्नदाता कड़कड़ाती ठंड में दिल्ली के बार्डर पर किसान विरोधी तीन काले कानून के खिलाफ सड़क में शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहा है।
इस आंदोलन के तीन मुख्य कारण हैं। तीन कृषि क़ानून जिसमें पहला है किसान उपज, व्यापार वाणिज्य अधिनियम २०२० के सेक्शन १४, १५, १६, १७॰१, १७॰२, १७॰३ में अंकित न्यूनतम समर्थन मूल्य, क़ानूनी अधिकार के उलंघन, पैरवी और सजा के प्रावधानों के विषय में लचर कथनों का प्रयोग। ये प्रावधान भविष्य में शक्तिशाली व्यापारीयों के पक्ष में काम कर सकता है। दूसरे क़ानून में आवश्यक फसलों की सूची से मुख्य फसलों को हटाना जिससे भंडारण में व्यापारियों का एकाधिकार संभव हो सके और तीसरा क़ानून जिसमें अनाज बाज़ार को निजी कम्पनियों के हित में असीमित करने और बिना किसी पूर्व नियोजन के इलेक्ट्रॉनिक, इंटर्नेट और मोबाइल जैसी व्यवस्थाओं को असीमित शक्ति प्रदान करने के प्रावधान जोड़े गए हैं।
ये तीन विधेयक 20 और 22 सितंबर, 2020 को भारत की संसद ने पारित किया जिसे 27 सितंबर को संघीय विचारधारा से प्रभावित भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन विधेयकों को मंजूरी दी फलस्वरूप ये तीनों क़ानून बन गए।
यहां बड़ा दोष प्रथम आधार स्तम्भ विधायिका के मुख्य जिम्मेदारी जिसमें कानून बनाते वक्त ऐ देखना कि वह कानून जनता के हित में हो और किसी वर्ग समुदाय का शोषण करने वाला ना हो के नहीं निभाने से है।
बनाए गए तीनों कानूनों को आनन फानन में विना किसानों की सहमति के उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने की नीयत से सरकार द्वारा तानाशाही रवैया अपनाते हुए पहले लोकसभा जिसमें भाजपा का पूरा बहुमत है पास करा लिया फिर राज्यसभा में विपक्ष के जबरदस्त विरोध के बावजूद मनमानी तरीके से पास घोषित कर दिए गए।
सरकार की तानाशाही के खिलाफ किसान लामबंद हुए क्योंकि उन्हें अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य और आज अपने खेत , कृषि बाजार असुरक्षित नजर आ रहा है। पिछले 61 दिनों से लाखों किसान हाड़ कंपा देने वाली शर्दी में अपने घर परिवार से दूर सड़कों पर बैठ कर आंदोलन कर रहा है।
किसानों का आंदोलन को लेकर नजरिया, उत्साह और तैयारी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लाखों ट्रेक्टर और उनमें लगी ट्रालियां जिन पर तिरपाल, पालीथीन आदि लगाकर उसी पर सड़क पर दिन, महीने और आंगे सालों तक आंदोलन करने के लिए तैयार हैं लेकिन किसी भी कीमत पर किसान तीनों काले कानून को लागू करने के लिए तैयार नहीं है। आंदोलन स्थल पर 90 वर्ष के बूढ़े किसान से लेकर महिलाएं और बच्चे तक घर छोड़कर अपने हक की लड़ाई अहिंसात्मक तरीके से लड़ रहे हैं।और जीतकर ही वापस जाने का माद्दा रखते हैं।
इस देश में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ अर्थात पत्रकारिता/ मीडिया अपने गिरते स्तर से भी नीचे गिरकर काम किया है।जिसका काम कानून उल्लंघन की जानकारी देना या तीनों स्तंभ जिसमें विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका अपनी जिम्मेदारी और निष्ठा से कार्य कर रहे हैं या नहीं यह जानकारी देना है। अपने मूल काम को भूलकर मीडिया सत्ता की मलाई खाने और सत्ता के लिए काम करने में व्यस्त है जिसे आजकल गोदी मीडिया भी कहा जा रहा है।
किसी भी प्रस्तुति के दो हिस्से होते हैं पहला है ‘समाचार’ और दूसरा है ‘विचार’। समाचार में विचारों का समावेश पत्रकारिता में कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता। विचारों की प्रस्तुति अलग होती है इसे मिलाकर समाचार नहीं बनाया जा सकता ।
लेकिन इस समय भारतीय मीडिया मोदी की भाजपा और संघ की विचारधारा का गुलाम बन चुका है। और समाचार सिर्फ उन्हीं के फायदे के लिए बनाए और तैयार किए जाते हैं।
नोट बंदी , GST और करोना काल के समय लाकडाउन के वक्त की खबरें इसका जीता जागता उदाहरण है। गोदी मीडिया ने सत्ता की गुलामी इस कदर स्वीकार कर ली है कि 2000 के नोट में चिप लगी होने की झूठी खबर काला धन वापस लाने को सही सिद्ध करने के लिए चला दी।
वही गोदी मीडिया आज अहिंसात्मक आंदोलन कर रहे अन्नदाता जो हाड़ मांस कंपा देने वाली शर्दी में बूढ़े बच्चों के साथ अपने हक की लड़ाई लड़कर आने वाली पीढ़ियों और देश का भविष्य बचाना चाहते हैं उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी , मुफ्तखोर, देशद्रोही, उद्दंड आदि घोषित करने के लिए सत्ता के इसारे पर दिन रात मनगढ़ंत ख़बरें लोगों को परोस रहा है।आज के आंदोलन में लगभग तीन लाख ट्रेक्टर में किसान दिल्ली में दाखिल हुए दिल्ली वासियों के किसी एक घर के खिड़की का कांच नहीं टूटा, कोई एक दुकान नहीं लूटी, किसी एक दिल्लीवासी को परेशान नहीं किया और सत्ता के इसारे पर मीडिया लुटेरे और उद्दंड साबित करने में पूरा जोर लगा रही है।जबकि आंदोलन की सच्चाई दिखाने में सत्ता के दबाव में इनके हांथ पांव फूल जा रहे हैं।
इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि आज किसानों के साथ देश की बरबादी के लिए जितनी दोषी ऐ तानाशाही सरकार है उससे कहीं ज्यादा दोषी पत्रकारिता अर्थात गोदी मीडिया है।
:
जितेन्द्र चौरसिया




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