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आखिर कब तक गरीब परेशान रहेगा योगी जी...

  • Feb 24, 2021
  • 7 min read

रात को 1 बजे, पड़ोस के एक गरीब परिवार की बेटी जिसे उसके पति ने छोड़ दिया था और जो जुड़वा बच्चों की माँ बनने वाली थी, जो खून की कमी से ग्रस्त थी और अचानक रक्त स्राव बढ़ने लगा था, उसे लेकर गाँव के प्राथमिक उपचार केंद्र (PHC हंसवा, जिला फतेहपुर, ऊ प्र) पंहुचा।

गरीब का घर matdaan.com

5 मिन में वहाँ तैनात डॉक्टर जैसी बिल्कुल न लगने वाली महिला ने हमें डराते हुए आदेश किया कि इस गर्भवती को जिला उपचार केंद्र (फतेहपुर, ऊ प्र, 18KM) ले जाएँ। रेजिस्ट्रेशन के दौरान महिला, उसके पिता और बहन तीनों अपना मोबाइल नम्बर तक बता पाने मे असमर्थ थे। उनके मोबाइल मे आउट गोइंग नहीं थी। वो घर से आधार कार्ड और सोनोग्राफी रिपोर्ट नहीं लाये थे। यानी एंबुलेंस बुक कराना असंभव था। वो डॉक्टर जैसी बिल्कुल न दिखने वाली महिला बेहद प्रेम से समझाने लगी कि अपनी कार से ही ले जाओ, एंबुलेंस तो वहाँ छोड़ के आ जायेगी फिर कहाँ भटकोगे? ये समझते देर न लगी कि इस गरीब को हमारी कार की नजर लग गयी है।


जैसे तैसे एंबुलेंस आई, हर जगह मेरा मोबाइल दिये जाने का एक सामाजिक नुक्स हो सकता था जो मै अभी समझा भी नहीं सकता पर फिर भी मैंने ही अपना नंबर दर्ज कराया। रास्ते भर उन अजन्मे जुड़वा बच्चों के निर्बोधि पिता को फोन लगाता रहा। पूना मे कोरोना लॉक डाउन के बाद वापिस लौटा वो मजदूर दिन भर की बेगारी के बाद जाने किस गहरी नींद में सोया था। मिसड कॉल पे मारकाट कर लेने वाले गरीब को लगातार बजती रिंग भी जगा नहीं पा रही थी।


जिला अस्पताल जैसे इंसानी शरीर का कोई भीमकाय गैरेज हो। आँख खराब हो गयी? छोटू नई आँख फिट कर दे, पुरानी रख लेना सस्ते मे बिक जायेगी। अच्छा बजट नहीं है, छोटू, कोई पुरानी आँख लगा दे। साहेब लाइट तो बराबर मारेगी? भाई, फोकस हिला रहेगा लेकिन लाइट की गारंटी है। पैसे जमा कर दो आप तो।


दीवारों पर यूनिसेफ के इश्तेहार टंगे हैं। इतने रोमांचित इश्तेहार जैसे पट्रॉल् पंप में प्रधानमंत्री के अच्छे दिन टंगे रहते हैं। हर चीज निःशुल्क है सिर्फ रिश्वत देना पड़ता है। रिश्वत को सुखद अहसान बनाने के लिए एक सरकारी रिश्ता बनाया गया है। नाम है आशा बहु! भारत देश में 2014 तक 32 राज्यों के 2 लाख 33 हजार गांवों मे की 850000 आशा बहु नियुक्त किये गये हैं (ASHA - Accredited Self Help Activist)। 2014 के बाद से इस देश में आंकड़ों की गड़ना बंद हो गयी है, सब कुछ भीड़ से पता चलता है। भारत का डंका बज रहा है। भीड़ ने ही बताया है। ASHA, दुनिया ने इस स्कीम को चीन और बांग्लादेश से सीखा है। दुनिया भर में आशा यानी कंमुनिटी हेल्प वर्कर (CHW) देश के हर व्यक्ति तक चिकित्सा एवं उपचार पहुँचाने का काम करते हैं। लेकिन भारत में इनका मुख्य काम है रिश्वत कि व्यवस्था को सुगम और करुणामयी बनाना। बहरहाल मेरी चाची यानी की बड़ी मिन्नतों के बाद उपस्थित आशा बहु को खबर ही नहीं थी की इस वक्त ज़िला अस्पताल में क्या हो रहा है। 


डॉक्टर साहब जो थोड़े से डॉक्टर की तरह लग रहे थे, उन्होंने गर्भवती को डाँटना शुरू किया। इस चिंता भरे लहजे में कि लगा साक्षात बड़े भाई आ गए हों, द्रोपती के कृष्ण। फिर कहा, इन्हें कानपुर रेफ़र कर देते हैं (129KM), अंबुलेंस लेकर जाएगी और भर्ती करा के ही वापिस आएगी। मैंने गुहार लगाई, ये बेचारे पढ़े लिखे नहीं है, मैं पड़ोसी हूँ ज़्यादा मदद नहीं कर पाऊँगा। रक्त स्त्राव बढ़ रहा है, यहीं कुछ जतन करिए। झिढ़क कर बोले, यहाँ अभी कोई जाँच हो नहीं पाएगी, फिर सरकार ने कहा है कि किसी भी मरीज़ को बिना कोरोना जाँच के हाथ भी नहीं लगाएँ। मैंने पूँछा रैपिड टेस्ट भी नहीं हो पाएगी? कहने लगे सुबह १० बजे से पहले नहीं हो पाएगी। तबतक कुछ अनहोनी हो गयी तो?


हाथ भी न लगाएं? कदम-कदम पर लाशों की तरह बिछे ये मरीज और उनके तिमार् दार तबियत से लतियाये जा रहें हैं। बस हाथ लगाने से सरकार ने मना किया है। रिश्वत लेने से कोरोना संक्रमण नहीं फैलता है क्या? सर? सर? अनसुना कर दिये?


गर्भवती महिला अपने पति की अनुपस्थिति के शोक में रोए जा रही थी। पिता असहाय खड़ा मुझे ताक रहा था और छोटी बहन बस इंतेजार मे थी आगे क्या होगा। मैंने डॉक्टर साहब, जो थोड़े से डॉक्टर जैसे लग रहे थे, उनसे मशवरा मांगा और वो वक्त खराब न करने कि फटकार लगाते हुए एंबुलेंस की व्यवस्था करने को कहने लगे। अब मुझे समझ मे आने लगा कि हर मशवरा इंसानियत भरा नहीं होता। मैंने तपाक से कहा, सर यहीं इनके इलाज़ की और प्रसव की व्यवस्था कीजिये। डॉक्टर साहेब अजगर की तरह फूलने पसरने लगे, सिस्टर को डांटते हुए बोले इनसे लिखवा लो कि रेफ़र करने की सलाह के बावजूद ये यहीं इलाज़ कराने की जिद पर अड़े हुए हैं। सिस्टर ने मुझसे पूरा कानूनी हलफनामा लिखवाया, लिखते वक़्त मुझे लगा किसी की फांसी लिख रहा हूँ। लिखकर कलम तोड़ने की रश्म भी जहन से गुजरी। घबराहट भी हुई, फिर याद आया अंत मे रिस्क लेना या न लेना ही तो इंसान के हाथ में रह जाता है। इतने मे गर्भवती ने कहा, छोड़ो सब घर चलो जो होगा देखेंगे। पिता तैयारी करने लगा, मेरे सामने तीन विकल्प थे। कानपुर जाना, यहीं इलाज़ कराना, घर लौट जाना। कम से कम आज मुझे पता था, घर लौट जाना बुज़दिली होगी। मैंने डांटते हुए कहा चाचा अंगूठा लगाओ।


फैसला तो ले लिया, कड़कड़ाती ठंड में हर चीज से बैर लेने का फैसला। थोड़े डॉक्टर जैसे लगने वाले डॉक्टर साहेब, कफन वाले रंग के कपड़ों वाली सिस्टर, सरकारी लिबास में खड़ी मिडवाइफ और आतंकवादी जितने गुस्से वाले ऑफिस बॉय सब से पंगा हो गया। भीड़ वाले मरीजों के तिमार् दार और खुद गर्भवती महिला उसके पिता और बहन भी मुझसे नाराज हो गए। पर इस पंगे ने मेरे रीढ़ को पहली बार बड़ी इज्जत दी थी।


अंदर की कहूँ तो फटी पड़ी थी। जुड़वा बच्चे, खून की कमी, परिवार का झगडा, रक्त स्त्राव और सुबह तक बिना किसी इलाज़ के सिर्फ इंतेजार। कल सुबह मातम होगा कि मिठाई बँटेगी?


एक दूसरे चाचा जो कार चलाकर साथ गए थे उन्होंने अपना अनुभव बताया, अभी आशा बहु होती न बव्वा ये साले सब डॉक्टर लाइन से लगे रहते। मेरे मन मे आशा बहु और इस सरकारी रिश्तेदारी के लिए देवी देवताओं जितनी इज्जत जाग गयी। अच्छा, इनकी आशा बहु कहाँ है फिर? इन लोगों ने बताया ही नहीं होगा! चाचा का अनुमान गूगल सर्च से भी ज्यादा सटीक था। पड़ताल की तो जच्चा बच्चा कार्ड में आशा बहु का नंबर मिल गया। दो तीन बार लगाने पर फोन उठा, नींद मे आशा बहु ने आने से साफ इंकार कर दिया। गहरी नींद, कड़ाके की ठंड और पति की गाली गलौज रात को दो बजे सरकारी रिश्ता निभाने की घंटा इजाजत देगा। चचा ने कहा हम कार से आपको लेने आपके घर आ रहें हैं। अबकी बार कार सरकार।


आशा बहु को लेने जाते वक़्त चाचा ने अपना अनुभव विस्तार से बताया। बताया कि कैसे उनके बहन के प्रसव के समय भी डॉक्टर साहेब कानपुर रेफर करने पर तुले थे, फिर आशा बहु ने उनसे 2 हजार रुपए की व्यवस्था करने को कहा और सारा काम यहीं फतेहपुर सदर मे ही आराम से हो गया। मेरे सामने पूरी व्यवस्था नर्क, धरती और स्वर्ग तक खुली पड़ी थी। नर्कलोक से देवलोक तक सबका हिस्सा साफ साफ गणित की चौपाई की तरह बिछ गया। आशा बहु वैद् मुनि कम और नारद मुनि ज्यादा लगी। निरीह लेकिन शातिर, ये सरकारी रिश्ता देखकर समझ आया ये रिश्ता क्या कहलाता है।


खैर हम लोग आशा बहु को लेकर आये, रास्ते में उन्होंने ने ओपरेशन से प्रसव का कुल खर्च दस हजार रुपए बताया। ये भी बताया कि प्राईवेट में तीस हजार से ज्यादा लग जाते, इस लिए यहीं कराओ। खून देने वाले नहीं मिलेंगे इसलिए सेटिंग से दो हजार में खून भी मिल जायेगा। सब कुछ इतना तर्क संगत, इतना न्याय परक जैसे पिछले जनम का पाँप इस जनम मे भोगने वाला कानून। दुनिया में हर कुफ्र का वाजिब कारण है।


अस्पताल आ कर देखा तो गर्भवती, उसकी तीन साल की बेटी, उसकी बहन एक कोने में जहाँ गुटके की पीक के निशान थे वहाँ मैली सी गुदड़ी मे समेटे से बैठे हुए हैं।


आते ही आशा ने पूछा इंजेक्शन लगाया? जवाब हाँ में मिला। फिर पता चला उपर माले मे बेड अलॉट हुआ है। व्हील चेयर ढूंढते वक़्त डॉक्टर साहेब जो थोड़े से डॉक्टर जैसे लग रहे थे, उनसे व्हील चेयर का अनुरोध किया तो वो उठे और एक आया को डाटने लगे, कहा तुम लोग अपना काम ठीक से नहीं करते। व्हील चेयर भी मैं ढूँढू? डाटने की पूरी क्रमिक प्रक्रिया के दस मिनट बाद आया दीदी अपना शव उठाकर व्हील चेयर ढूंढने चली गयीं। बहुत देर बाद आशा बहु ने कहा यहीं पड़ी रहो नहीं तो बार-बार जाँच के लिए उपर नीचे कौन करेगा। कहा न हर कुफ्र का वाजिब कारण है।


खर्चे का हिसाब करते करते गर्भवती के पिता ने कहा चलो बेटा घर चलते हैं, रुपए की व्यवस्था करनी होगी। दोनो चाचा और मैं वहाँ गर्भवती, उसकी 3 साल की बेटी, उसकी बहन और आशा बहु को छोड़ कर चले आये।


जो लोग हमेशा हैप्पी एंडिंग पसंद करते हैं उनके लिए खुशखबरी ये है। महिला प्रधान होते इस समाज मे हम तीन मर्द घर लौट आये और साढ़े तीन औरतें और गर्भवती के पेट मे दो न जाने कौन को वहीं छोड़ आये। बहुत बड़े गुटके की पीक दान के बीच कोई छोटा सा अस्पताल था। डॉक्टर साहेब जो अब डॉक्टर नहीं लग रहे थे। व्हील चेयर ढूंढने गयी आया, कफन जैसे कपड़ो वाली सिस्टर, एंबुलेंस के देव दूत। सब को वहीं छोड़ दिया, रास्ते भर सोचता रहा कि गरीब को पैसे की जरूरत होगी। जरूरत होगी तो कहेगा ही। उहा पोह बनी रही, क्या होगा की चिंता बनी रही। घर आया तो ज्योति ने बताया कि गर्भवती के पति ने उसको छोड़ दिया है, किसी और के साथ पूना मे रहने लगा है। रास्ते भर जिस मर्द को फोन लगाते रहे, जिसको हमसे ज्यादा तो कफन जैसे कपड़ों वाली सिस्टर ने कोसा था, वो मर्द बिल्कुल चैन से किसी और आँचल की छाँव में सोया है। हर कुफ्र का वाजिब कारण होता है।


इतनी ठंडी रात में भटकने के बाद गरम रजाई बेचैन करती रही। ऐसी कितनी रातें कितनी गर्भवतीयों ने बड़े गुटके के पीक दान के बीच में छोटे से अस्पताल की दहलीजों बिताई होगी?


खैर हैप्पी एंडिंग वाली खुशखबरी, गर्भवती को आज दोपहर एक बेटा और एक बेटी हुई है। दोनों स्वस्थ हैं, और माँ भी। कम से कम इस कहानी का अंत हैपी है। बाकियों की चिंता हो तो सत्ता से सवाल करना ज़रूरी है।


अस्पतालों की हालत जितनी नाज़ुक है उतना ही तगड़ा फंड आता है। जेनरेटर के ऊपर टिन की छत टूटी हुई है? क्या रेपरिंग का फंड नहीं है? टिन जिस लागत में लगाई गयी है उसमें साउंड प्रूफ़ जेनसेट रूम बन जाता लेकिन बही खाता में लीपा पोती होती है। व्हील चेयर ढूँढते वक्त मैंने देखा कि लगभग चार कमरे जिनको जच्चा-बच्चा कक्ष बनाया जा सकता था वो ख़ाली पड़े हैं। धूल और गुटके के पीक दान से सने कमरे? क्या बजट नहीं है? कोरोना की रैपिड जाँच रात में नहीं हो सकता? खून की जाँच रात में नहीं हो सकती थी? स्टाफ़ नहीं था? या हाजरी लगा के घर सोने चले गए थे? दीवारों में नोटिस लगा देने से ईमानदारी नहीं आती। सवाल पूछने पड़ते है।

 
 
 

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