गांधी की ताक़त को पहचानों
- Oct 5, 2020
- 3 min read
Updated: Oct 6, 2020

एक सदी में ही सत्यवादी होना मज़ाक़ बन गया है। संसद में बोली जाने वाली ज़ुबान अपने घरों में बोलने लायक़ नहीं बची है। वादों और इरादों के बीच की खाई में ईमान की आख़िरी उम्मीद भी दफ़्न हो चुकी है। किसान पूँजीपति हो जाएगा, इंडिया डिजिटल हो जाएगा, आतंकवादी दम तोड़ देंगे, कलाधन पड़े पड़े हाई सड़ जाएगा। घर घर चूल्हे बाँट देंगे और खाते भी खोल देंगे। इसके बाद खुला छोड़ देंगे हमको और आप को नर पिशाचों की ख़ुराक के लिए और अख़बारों में छाप देंगे भारत आत्मनिर्भर हो गया है। इतना आत्मनिर्भर की पीड़ित की चिता ख़ुद जल जाती है, बाबरी ख़ुद ध्वस्त हो जाती है, बेरोज़गार खिलौने बनाने लगता हैं। जी हाँ सत्ता कुछ भी कर सकती है।
आज़ादी दिलाने वाले स्वराज के जन्मदाता को आज की आत्मनिर्भर सत्ता के नर पिशाचों ने क्या ढब से याद किया है। दिन था 2 अक्टूबर 2020, गांधी की 151वीं और शास्त्री की 120वीं जयंती। इस दिन दुनिया भर में लोगों ने गांधी के संदेशों की याद किया लेकिन भारतीय घोडसे की जयजयकार में मग्न रहे। ना जवान की जय, न किसान की जय, जयकारा सिर्फ़ घोडसे का। हाथरस की पीड़ित दलित मृतिका के साथ बलात्कार ही नहीं हुआ लेकिन आधी रात को शव जला दिया गया। पुलिस इस दर्जे बर्बर है की लाला लाजपत राय जैसा हश्र अब किसी का भी हो जाना चकित नहीं करता।
बीते दिनों अख़बारों और टीवी से चरस-गाँजा का सिनेमा इतना बेचा गया की आज भारत में नर पिशाचों का नंगा नाच हो रहा है और हम सब तल्लीन होकर मनोरंजन की किश्त को चाटने में मशगूल हैं। एक दशक पहले भारत की चेतना में गांधी और अम्बेडकर के बीच बहस होती थी। अब किसी की हिम्मत नहीं है की वो घोडसे के ख़िलाफ़ भी कुछ बोल पाए। अगर घोडसे के कुकृत्य को जायज़ या नजायज़ साबित करने की बहस में भी आपकी हिस्सेदारी है तो समझिए आप अपनी आज़ादी और नागरिकता दोनों खो चुके हो। आपको भारत के सबसे बड़े डेटा फ़ैक्टरी ने अपना ग़ुलाम बना लिया है। यदि आप वर्ण व्यवस्था और जाती व्यवस्था को अलग-अलग मानते हुए वर्ण व्यवस्था को सही मान रहे हो तो समझना नर पिशाचों ने आपकी बुद्धि पहले ही हर ली है।
यदि आज के इस ज़हरीले माहौल में घुटन के बावजूद ख़ुद को ज़िंदा महसूस करते हो तो मेरी बात को ध्यान से सुनो। हमारा दुश्मन किलों में महफ़ूज़ है और हम खुले में उसकी अपार सेना से लड़ रहें हैं। इस लड़ाई में न हमारी शहादत काम आएगी और न दुश्मन के सैनिकों की लाशें। इस संग्राम में यदि क़िले में महफ़ूज़ सत्ता जीत जाएगी तो हमारी और अपने सैनिक की लाशों को चुनवा कर क़िले की दीवारों को और मज़बूत बना लेंगे। हमारा जीते जी लड़ते रहना और मरते ही लाश हो जाना दोनों सत्ता की ख़ुराक का हिस्सा है। इसलिए छद्म लड़ाई से बचो, हमें सत्ता की ट्रोल सेना से नहीं लड़ना है, वो बने ही इस मामूली लड़ाई के लिए है। उन्हें मैडल ही हमें उलझाकर मार डालने के लिए दिया जाता है। ट्रोल से लड़कर हम सत्ता की ख़ुराक के लिए अपनी आहुति दे रहें हैं। हमें सत्ता के क़िले को तोड़ना है। मज़बूत क़िले बन्दूकों की गोलियों से नहीं टूटते, तोप ख़रीद पाना हमारी औक़ात के बाहर है। किलों को तोड़ने के लिए उसमें सुराख़ करनी पड़ती है। इस भीमकाय सत्ता के नाक से तिनके की तरह घूस के उसके गले ने जाकर फँसना है। हम सब तिनके हैं, एक बार सही से सत्ता के गले फँस गए तो सत्ता घुटने टेक देगी।
यही गांधी की ताक़त का रहस्य था। गांधी को मालूम था हम सब ब्रिटिश साम्राज्य के आगे मामूली से तिनके हैं लेकिन अगर हम साम्राज्य के आँख, नाक, कान और गले में फँस गए तो सत्ता ध्वस्त हो जाएगी और स्वराज्य आएगा। अपने आप को पहचान लेना ही समर जीतने का पहला लक्ष्य है। हम तिनके हैं, हमें फाँस बनाना है, सत्ता के गले की फाँस। ये ही गांधी ने किया था, यही उसकी औलादों को करना है।
कैसे? एक जुट होते जाओ, ताक़त बटोरते रहो और सही समय का इंतज़ार करो। जल्दी मिलेंगे
हे राम!
नोट :- यह लेखक के अपने विचार हैं । मतदान डॉट कॉम इस पर कोई राय व्यक्त नहीं करता है



Comments