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भावनाओं का अंक गणित

  • Jan 11, 2021
  • 3 min read

वर्ना कौन सा देश है जो अमरीकी राष्ट्रपति की तौहीन कर दे और अमेरिका मुँह ताकता रह जाए?


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#डिजिटल_युग के पहले हर चीज़ का माप था सिवाय भावनाओं के, फिर लाइक्स, शेयर्स, फ़ालोअर्ज़, #रिट्वीट्स और व्यूज़ की संख्याओं ने इंसानी विचारशीलता के पैमाने भी गढ़ दिए।

शुरूआत में तो यूँ लगा कि शादी ब्याह, जन्मदिन और घाटी वादियों के फ़ोटो ही शेयर और लाइक किए जाएँगे। लेकिन फिर शुरू हुआ आम जनमानस के भावनाओं से खिलवाड़ का तिलस्मी खेल जो हर पल भयावाह होता गया।

विख्यात गणितज्ञ कैथी-ओ-नील अपनी पुस्तक “वेपन ऑफ़ मास डेस्ट्रक्शन” में लिखतीं हैं, ये भारी-भरकम अलगोरिथम जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है, इंसानी फ़ितरत को करोड़ों गुना और शक्तिशाली कर देते हैं। मतलब ये कि यदि भीड़ किसी को पसंद कर ले तो वो व्यक्ति बेहद ताकतवर हो जाएगा और यदि भीड़ किसी से नफ़रत कर ले तो उस व्यक्ति की हत्या भी जश्न का माहौल बना दे।


व्यक्तिगत और निजी भावनाओं को बेहद शक्तिशाली मंच देना ही इन कम्पनियों का मुनाफ़ा है। लेकिन अब ये संस्थाएँ महज़ मंच नहीं हैं बल्कि अपनी बनाई पटकथा में अभिनय भी कर रहीं हैं। क्रेडिट कार्ड बेचने से लेकर सरकार बनाने और सरकार गिराने तक की ताक़त रखने वाले ये प्लेटफ़ोर्मस कई देशों की संयुक्त सैन्य बल से भी अधिक शक्तिशाली हो गए हैं। वर्ना कौन सा देश है जो #अमेरिकी_राष्ट्रपति की तौहीन कर दे और अमेरिका मुँह ताकता रह जाए?


किसी भी देश का अति #शक्तिशाली हो जाना कितना भयावाह है ये हमने पिछली सदी में हुए दो-दो विश्व युद्धों में और उसके बाद से लगातार जारी शीत युद्धों में देख लिया है। किसी एक व्यापारिक संस्था के बेहद शक्तिशाली हो जाना किस अंजाम तक जा सकता है इसकी कल्पना भी अगर हो पा रही हो तो ये सचेत हो जाने का समय है। या शायद अब देर हो चुकी है।


सत्ताधारी हमेशा से ही दम्भी और दमनकारी होते रहे हैं, #लोकतंत्र ने जनता को सत्ता के नाक में नकेल कसने की ताक़त सौंपी है, #सोशल_मीडिया इस शक्ति को जनता से छीन कर अपना एकाधिकार करना चाहती है। ऐसी डिजिटल व्यवस्था में सत्ता और जनता के बीच #डेटा_प्रोसेसिंग_एंजिन हावी होने लगेंगे। ताकतवर सत्ता का सीधा टकराव उसकी जनता से होना ही लोकतांत्रिक शक्ति संतुलन उचित प्रमेय है, यदि इस संतुलन में अलगोरिथम संचालित मुनाफ़ाख़ोर संस्थाओं ने सेंधमारी कर ली तो लोकतंत्र हमेशा के लिए हाशिए पर होगा और अलगोरिथम से संचालित भीड़ तंत्र हमें सदा के लिए ग़ुलाम कर लेगी।


निक चीजमेन अपनी किताब “हाउ टू रिग एन इलेक्शन” में लिखते हैं, पहले गुप्त मतदान के अधिकार को संरछित किया जाना सम्भव था लेकिन डिजिटल युग में डेटा कम्पनियाँ अरबों अरब डेटा प्रॉसेस करने की क्षमता रखती हैं, और इंसानों के हर पल बदलते विचारों को संचालित कर सकती हैं। ऐसे में मतदाता क्या सोच सकता है और उसे क्या सोचना चाहिए ये सब कुछ निजी मुनाफ़े के लिए डेटा प्रॉसेस कम्पनियाँ सत्ता के इशारे में प्रभावित करती हैं। ये सब कुछ तब तक नियंत्रण में है, जब तक मुनाफ़ाख़ोर संस्थाएँ सत्ता के अधीन फ़रेब करती हैं। हाल ही में हुए कैपिटल हिल हमले के बाद सोशल मीडिया संस्थाओं ने साबित कर दिया है कि अब वो सत्ता के विरुद्ध भी जंगी प्रदर्शन करने के लिए तैयार हैं।


जनमानस का ग़ुलाम होना नया नहीं है, इस बार सत्ता-मानस के ग़ुलाम हो जाने का ख़तरा है और वो भी मशीनों से।

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