मसीहा बनाम लोकतंत्र - अमेरिका 2016 से 2020
- Jan 23, 2021
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समाज की संरचना कई लाख वर्षों की सतत प्रक्रिया है। इस समाज में लगातार बदलते शक्ति पुंजों में आपसी सामंजस्य

बैठाने की व्यवस्था को राजनीति कहते हैं। ऐसी कोई भी व्यवस्था जो समाज को चिरस्थाई रखने के प्रयास में इसमें व्याप्त शक्ति पुंजों से शक्तिहीन भीड़ का रिश्ता क़ायम रख पाए उस व्यवस्था में सदा ही अनैतिकता और अन्याय व्याप्त रहें हैं। किसी समाज के गठन से लेकर उसके उजड़ जाने के बीच उस समाज में नैतिकता और न्याय की मौजूदगी हमेशा घटती और बढ़ती रहती है। जब ये व्यवस्था अधिकतम न्यायिक हो जाती है तो समाज नए नए आविष्कार, खोज और कलाओं का सृजन करता है। लेकिन जब वही समाज बेहद अनैतिकि और अन्यायपूर्ण हो जाता है तो क्रांति होती है और वो समाज पुनर्जागरण के लिए प्रशश्त हो जाता है। जिस तरह से साँस लेने से छाती फूल जाती है और साँस छोड़ने से छाती पचक जाती है और जीवन पर्यंत ये प्रक्रिया चलती रहती है। वैसे ही हर समाज नैतिक और अनैतिक के बीच फूलता-पचकता रहता है। इस प्रक्रिया को मानव जाति की जीवन चक्र कहा जा सकता है। कोई समाज ये चक्र जल्दी पूरा कर लेता है तो कोई समाज इस चक्र को पूरा करने में हज़ारों वर्ष ले लेता है। लेकिन हर नयी व्यवस्था हर बीती व्यवस्था से थोड़ी बेहतर होती है और थोड़ी दीर्घायु भी होती है।
समाज में जैसे ही सर्वोत्तम व्यवस्था लागू होती है, उस समाज के शक्तिपूँज धीरे-धीरे निश्चिंत, निरंकुश और संवेदनहीन होने लगते हैं। वो आपसी रंजिश में समाप्त होने लगते हैं। इन शिक्तिपूँजों के बीच पनपी चुनौतियाँ पूरे समाज को फोड़ने में लग जाती हैं। जिस समाज में शक्ति का ध्रुवीकरण जितना अधिक होगा वो समाज उतनी जल्दी अपना चक्र पूरा करेगा और वो चक्र उतना ही अधिक विनाशकारी होगा। इसके विपरीत जिस व्यवस्था में शक्तिपूँज संख्या में अधिक और एक दूसरे पर निर्भर होंगे, वो समाज दीर्घायु रहेगा। तानाशाही व्यवस्थाओं में समाज बहुत तेज़ी से विकसित होते हैं लेकिन उससे भी अधिक विध्वंशक अंत को प्राप्त करते हैं। हिटलर, औरंगज़ेब आदि ऐसी व्यवस्था के उदाहरण हो सकते हैं जो तेज़ी से विकसित तो हुए लेकिन उतनी ही बुरी तरह से बर्बाद हुए। वहीं ऐसी व्यवस्थाएँ जो शक्ति पूँजो को सम्भालकर चलती रहीं हैं वो धीरे-धीरे विकसित हुईं लेकिन लम्बे समय तक जनमानस के हित में कार्य करती रहीं।
हर दूसरे दशक में सामाजिक व्यवस्था चरमराने लगती है। भीड़ की तरह निरीह जीने वाले लोग असंतुष्ट होने लगते हैं। ऐसे में उस भीड़ को संतुष्ट करने का अभिनय भी किया जाता रहे है और कभी उस भीड़ को सच में संतुष्ट भी किया गया है। जब-जब भीड़ को बहलाने की कोशिश की गयी है उसको किसी न किसी आसमानी मसीहा के आने के सपने ही बेचे गए हैं। एक ऐसा मसीहा जिसके आने से उनके सारे दुःख दूर हो जाएँगे। उस मसीहा के आ जाने की उम्मीद में ही भीड़ बहुत समय तक खुमारी में रहती है।
इसका स्पष्ट आशय ये है की समाज जब भी किसी भ्रष्ट व्यवस्था से जूझ रहा होता है तब उसे किसी मसीहा के आने की उम्मीद बढ़ जाती है और व्यवस्था स्वयं कोई ऐसा शक्तिपूँज पैदा कर देती है जिसमें कोई सवघोषित मसीहा बन जाता है। जनता के दुःख हारने के तमाशे में वो जल्दी ही तानाशाही प्राप्त कर लेता है। इसलिए, मानवजाती ने लगभग पूरी दुनिया में एक ऐसी व्यवस्था बनाने का प्रयास कर रही है जिसमें कोई भी शक्ति समूह तानाशाह न हो जाए। ये प्रक्रिया अभी बिल्कुल नवल पथ पर है, इसे लोकतंत्र कहते हैं। इस लोकतंत्र का असर ये है की दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश में एक तानाशाह सत्ता हांसिल तो कर लेता है लेकिन उस पर क़ाबिज़ नहीं हो पाता और वो व्यवस्था खुद उसे दर किनार कर देती है। कई और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ऐसा नहीं हो पा रहा है, क्योंकि उन सामाजिक चेतनाओं में अभी भी मसीहा के आने की उम्मीद बनी हुई है।
जब तक समाज किसी मसीहे के आस में जीता रहेगा वो समाज ठगा जाएगा। समाज में शक्ति संतुलन के लिए अभी तक के सबसे बेजोड़ तरीक़ों में लोकतंत्र सबसे बेहतर है। ये बिल्कुल भी पर्फ़ेक्ट नहीं है लेकिन अभी तक के सभी तरीक़ों में बेहतर है। हलकी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में मसीहा के चुने जाने की भावना पनप रही है और मानवजाति के लिए इस समय काल का सबसे बड़ा ख़तरा यही है। आज़ाद हो जाना ख़तरे को कम नहीं करता लेकिन आज़ादी के बाद फिर से ग़ुलाम हो जाना निशिचित ही भयावाह होता है।




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