जहर के सत्ताधारी किसान
- Ankit mishra
- Jan 12, 2021
- 3 min read
Updated: Jan 13, 2021
कुणाल कामरा और मुनव्वर फारूकी दोनों एक ही किस्म की कॉमेडी करते है। दोनों ही कमाल और चालाक राइटर है, राजनीतिक कटाक्ष पर दोनों की पकड़ ज़बरदस्त है।
कुणाल काफी अनुभवी है और मुनव्वर से उम्र में बड़े भी है,

लेकिन ये फ़र्क़ मायने नही रखता। असली फ़र्क़ जो है वो ये की एक ही तरह की कॉमेडी करने के बाद भी दोनों के प्रति अलग अलग तरह के विरोध और सियासत से भरी हुई कार्यवाही अलग अलग है। मौका मिलते ही उस कम उम्र के कलाकार को किसी और ही शहर की जेल में डाल दिया। दरअसल कुणाल और मुनव्वर में वही फ़र्क़ है जो कन्हैया कुमार और उमर खालिद में है। समझदार जानते है कि ये खेल नैरेटिव का है, कुछ लोग कहते कि वो लोगो को कपड़ो से पहचान लेते है उन्हीं जैसो के अनुयायी नाम से भी काफी कुछ जान लेते है।
सत्ता की आंख में आंख डाल के खिलाफत करने वाले बहुत बचे नही है मुल्क में लेकिन उन सारो में से कितने जेल गए है अगर उनकी फेहरिस्त निकालना हो तो सिर्फ एक फ़िल्टर लगाने की देर है, विज्ञान ने वैसा कोई फ़िल्टर बनाया नहीं है लेकिन इसे पढ़ने वाले जानते होंगे कि वो क्या है! उन्हें जेल भेजकर IT सेल और गोदी मीडिया के माध्यम से उनको बदनाम करना, बिना लिहाज़ किये की वो औरत है या मर्द ये उन्हें देशद्रोही बनाने से लेकर चरित्रहीन तक साबित कर देना। और मुल्क का एक बड़ा तबका इसे बिना दिमाग इस्तेमाल किये सच मान लेता है।
ये पूरा घटनाक्रम धार्मिक भावनाओं के आहत हो जाने के बारे में बताया जा रहा है लेकिन ऐसा है नही। कैसे समुदाय विशेष को एक गढ़े हुए गुनाह के मामले में गुनहगार साबित करके और उसके लिए अमानवीय सजा मिलने को एक आम बात बनाना यही इनके मकसद को ताकत देता है। डॉक्टर कफ़ील गोरखपुर में बच्चों की जान बचाने की कोशिश कर रहे थे, उमर खालिद अपने भाषण में अंबेडकर और गांधी के विचारों की बात कर रहे थे, सफूरा जरगर लोकतांत्रिक तरीके से अपने हक़ के लिए लड़ रही थी और मुनव्वर अपनी तर्क संगत मानसिकता को व्यंग में लपेटकर लोगो को हंसाने की कोशिश कर रहा था, ये सब और इनके जैसे कई लोग जेल में है या काफी दिन रह चुके है। इनकी असल गलती क्या है हम सब जानते है।
पिछले 3-4 दशक में जो सुबह सुबह उठाकर एक समुदाय विशेष के खिलाफ जो ज़हर के बीज बोए है ये सब उसी जहर की फसल है। अब इसे प्रशासन और गोदी मीडिया जैसी धारदार चीज़ों से काटा जा रहा है। और प्रशासन पूरी वफादारी से अपना काम कर रहा है ऐसे मसलो पर।
इसी वाकये की कड़ी में संजय रजौरा (स्टैंड अप कॉमेडियन) का एक लेख भी पढ़ने लायक है, उस लेख के एक हिस्से में 'जाने भी दो यारो' (एक शानदार फ़िल्म) का ज़िक्र करते हुए संजय ने कहा है कि हम 40 सालों में 'जाने भी दो यारो' से 'बोलने भी मत दो यारो' तक आ गए है, जो कि बहुत दुखद है इस देश के लिए। मुझे ये सोचकर डर लगता है कि अगर 'जाने भी दो यारो' आज के वक़्त में रिलीज़ हुई होती तो उसका क्लाइमेक्स देखकर ना जाने कितनों की भावनाएं आहत हो जाती।
इस वाकये को जब तूल मिली तब सोशल मीडिया पर एक विडिओ सामने आया जो इंदौर मे होने वाले मुनव्वर के शो का ही था। उस विडिओ मे मुनव्वर और एक और व्यक्ति (जो मुनव्वर के विचारों से असहमत है) के बीच का लंबा संवाद है, जो देखने सुनने मे बहुत सहज और लोकतान्त्रिक लग रहा है। इस देश के दो युवा अपने विचारों पर लंबी बहस करें इससे खूबसूरत क्या होगा। लेकिन उसके बाद जो चीज़े उस कॉमेडी शो मे हुई वो बड़ी ही अमानवीय रही। दिक्कतें कहीं और से पैदा की जाती है जिसे सभी को मिलकर समझना और उससे लड़ना होगा।




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