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संकट में कौन? किसान या सरकार?


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20 और 22 सितंबर, 2020 को भारत की संसद ने कृषि संबंधी तीन विधेयकों को पारित किया. 27 सितंबर को भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन विधेयकों को मंजूरी दे दी, जिसके बाद ये तीनों क़ानून बन गए. इन क़ानूनों के प्रवाधानों के विरोध में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं.

आंदोलन को लगभग 2 माह हो चले हैं और देश के तमाम राज्यों के किसान इस आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं मप्र से भी कई जत्थे रास्तों के तमाम संघर्षों से गुजर कर आंदोलन का

हिस्सा बन चुके हैं ।

इस हाड़ कपाती सर्दी में किसानों का लड़ने का जज्बा देख कर सरकार के माथे पर भी पसीना नजर आ रहा है ।

तमाम दौर की वार्ता के बाद भी नतीजा शून्य ही है ।

आखिर जुमलेबाज सरकार पर किसान भरोसा करे तो करे कैसे ।

ऊपर से जिस तरीके से बिना बातचीत के बिल लाये गए उससे किसानों के मन में तमाम संदेह हैं और सरकार के नुमाइंदे किसानों को भरोसा दिलाने में असफल रहे हैं ।



इन क़ानूनों के ज़रिए मौजूदा एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) की मंडियों के साथ साथ निजी कंपनियों को भी किसानों के साथ अनुबंधीय खेती, खाद्यान्नों की ख़रीद और भंडारन के अलावा बिक्री करने का अधिकार होगा.


विरोध प्रदर्शन करने वाले किसानों को इस बात की आशंका है कि सरकार किसानों से गेहूं और धान जैसी फसलों की ख़रीद को कम करते हुए बंद कर सकती है और उन्हें पूरी तरह से बाज़ार के भरोसे रहना होगा.

किसानों को इस बात की आशंका भी है कि इससे निजी कंपनियों को फ़ायदा होगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य के ख़त्म होने से किसानों की मुश्किलें बढ़ेंगी.

सरकार MSP की गारंटी और कुछ समय बिल टालने जैसी बातें कह तो रही है पर किसान इसे आंदोलन को टालने के तौर पर ही ले रहे हैं।

26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड से दिल्ली में बवाल मचा हुआ है ,यह बवाल आंदोलन को कमजोर करेगा , हिंसा किसी भी रूप में जायज नही है यदि किसान नेताओं को आशंका थी तो उन्हें सावधान रहना चाहिए था ,कुछ उपद्रवियों की हरकत का नुकसान आंदोलन को उठाना पड़ सकता है ।

गोदी मीडिया और उसके कारिंदे किसानों को लालकिले पर झंडे वाले प्रकरण में घसीटेंगे हालांकि यह करते वक़्त वह यह भूल जाएंगे कि लालकिले की प्राचीर पर तिरंगा सबसे ऊपर उसी शान से लहरा रहा है , हालांकि किसान संगठन अन्य झंडे पोल पर न लगाते तो बेहतर होता ।

इस देश की सरकार ने लालकिले को निजी कम्पनी को सौंप दिया वह शर्मनाक नही है परंतु किसानों को अब मिलकर गलत ठहराया जाएगा ।

वैसे आंदोलन शांतिपूर्ण रहता तो बेहतर था और सरकार कोई ठोस हल निकाल पाए तो यह सरकार के लिए भी बेहतर होगा ।

देखना यह है कि अब कौन पीछे हटता है सरकार या किसान .....

संकट अभी बरकरार है !

 
 
 

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