1857 के स्वतंत्रता संग्राम से 2021 तक के बीच किसानों ने कब कब किए बड़े आंदोलन और कैसे रचा इतिहास?
- जितेंद्र चौरसिया
- Feb 1, 2021
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सन् 1857 में जब भारत में चल रहे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजों ने देशी रियासतों के सहारे से दबा दिया था, लेकिन देश में कई जगहों पर विद्रोह की ज्वाला लोगों के हृदय में धधक रही थी। लोगों के असंतोष ने अनेकों स्थानों पर एक के बाद एक कई आंदोलन किए यह आंदोलन किसानों द्वारा किए गए।

इतिहास में किसानो का सबसे प्रभावी और बड़ा आंदोलन नील पैदा करने वाले किसानों का हुआ था। यह आंदोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ बंगाल में सन् 1859,1860 में किया गया।
अपनी आर्थिक मांगों को लेकर किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस समय का एक विशालतय आंदोलन था। अंग्रेजों द्वारा बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए मजबूर करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को नहीं के बराबर की अग्रिम रकम देकर उनसे समझौता लिखा लेते लिया करते थे, जो बाजार भाव से बहुत ही कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को उस समय पर 'ददनी प्रथा' कहा जाता था।
सन् 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का ढंग पूर्व के सभी आन्दोलन से अलग था। अब किसान बगैर किसी बिचौलियों के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश मांगें रोजी रोटी के लिए होती थीं।उस समर किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।उस समय पर राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध आंदोलन में संभव नहीं हो पाया।
पाबना आंदोलन इसी तरह का पहला विद्रोह था जो पाबना जिले के किसानों से शुरू हुआ था। जमींदारों की ज्यादती का मुकाबला करने के लिए सन् 1873 में पाबना के यूसुफ सराय के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभाएं आयोजित करना होता था, ताकि किसान आधिकाधिक रूप से अपने अधिकारों के लिए सजग हो सकें। किसानों को सन् 1859 में पारित एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था। लेकिन इसके बावजूद जमींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी जमीन के अधिकार से वंचित किया था विरोध स्वरुप आंदोलन खड़ा हो गया था।
दक्कन का विद्रोह :एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा वरन देश के विभिन्न भागों में फलाफूला। यह विद्रोह दक्षिण में, क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।
कूका विद्रोह : किसानी से संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज़ सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। सन् 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का सामना किया।बाद में में उन्हें कैद कर रंगून भेज दिया गया, जहां पर सन् 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।
बिजोलिया आन्दोलन मेवाड़ राज्य के किसानों द्वारा 1897 ई शुरू किया गया था। यह आन्दोलन किसानों पर अत्यधिक लगान लगाये जाने के विरुद्ध किया गया था। यह आन्दोलन बिजोलिया जागीर से आरम्भ होकर आसपास के जागीरों में भी फैल गया। इसका नेतृत्व विभिन्न समयों पर विभिन्न लोगों ने किया, जिनमें सीताराम दास, विजय सिंह पथिक और माणिक्यलाल वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। यह आन्दोलन लगभग आधी शताब्दी तक चला और 1941 में समाप्त हुआ। यह आंदोलन धाकड़ जाति के किसानों द्वारा शुरू किया गया था।
रामोसी किसानों का विद्रोह : महाराष्ट्र में किसान वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया।
आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ। सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक कभी कभार धीमी गति से चलता रहा।
बारदोली सत्याग्रह : गुजरात के सूरत के बारदोली तालुका में सन् 1928 में किसानों द्वारा 'लगान' न चुकाने का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल 'कुनबी-पाटीदार' जातियों के बड़े किसानों ने ही नहीं, बल्कि सभी जनजाति के लोगों ने हिस्सा लिया।
अखिल भारतीय किसान सभा - सन् 1923 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 'बिहार किसान सभा' का गठन किया। सन् 1928 में 'आंध प्रान्तीय रैय्यत सभा' की स्थापना एन जी रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चैधरी ने 'उत्कल प्रान्तीय किसान सभा' की स्थापना की। बंगाल में 'टेंनेंसी एक्ट' को लेकर सन् 1929 में 'कृषक प्रजा पार्टी' की स्थापना हुई। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक 'अखिल भारतीय किसान संगठन' बनाने की योजना बनाई।
चम्पारण सत्याग्रह - चम्पारण का प्रकरण चर्चित और पुराना था। चम्पारण के किसानों से अंग्रेजी बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। जो 'तिनकठिया पद्धति' के नाम से प्रसिद्ध थी। 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज हो चुकी थी उनके प्रचलन से नील के बाजार समाप्त होने लग गए। नील बागान के मालिकों ने अपने कारखाने बंद करने पड़े और किसानों को नील की खेती से मुक्ति मिली।
खेड़ा सत्याग्रह : चम्पारण के बाद गांधीजी ने सन् 1918 में खेड़ा, गुजरात में किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया।खेड़ा में गांधीजी ने अपने पहले 'किसान सत्याग्रह' की शुरुआत की। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की, लेकिन उन्हें कोई रियायत नहीं मिल सकी।
गांधीजी ने 22 मार्च, 1918 को खेड़ा आन्दोलन आपने नेतृत्व में लिया।सरदार वल्लभभाई पटेल और इन्दुलाल याज्ञनिक इस आंदोलन में गांधी जी के साथ खड़े थे। इसके बाद में कल्याणजी तथा कुंवरजी नामक मेड़ता बंधुओं' ने भी सन् 1922 में बारदोली सत्याग्रह को प्रारंभ किया था। बाद में इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया।
ताना भगत आंदोलन : इस आन्दोलन की शुरुआत बिहार में सन् 1914 में हुई।लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध यह आंदोलन किया गया था।यह आन्दोलन 'जतरा भगत' ने प्रारंम किया था।
'मुण्डा आन्दोलन' की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद 'ताना भगत आन्दोलन' शुरू हुआ। यह एक धार्मिक आन्दोलन था जो राजनीतिक लक्ष्य के लिए था। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए 'पंथ' के निर्माण का आन्दोलन था। इस प्रकार से यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति संघर्ष की दिशा में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे।
उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन :मदन मोहन मालवीय के दिशा निर्देशन के परिणामस्वरूप फरवरी, सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में 'किसान सभा' का गठन किया गया। सन् 1919 के अंतिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने सहयोग किया और ताकत प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आंदोलन' नामक आंदोलन चलाया।
मोपला विद्रोह :प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ था। केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में विद्रोह किया गया। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आंदोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' चर्चित थे। सन् 1920 में इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया और शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया।
चारी किसान हड़ताल: 1927 से 1933 में महाराष्ट्र के कोंकण में छह वर्षों तक खोटी के खिलाफ किसानों ने लगातार आंदोलन हुआ जो इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया।
तेभागा आन्दोलन :किसानों ने 'फ्लाइड कमीशन' की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था।किसान आन्दोलनों में सन् 1946 का बंगाल का यह तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था। 'तेभागा आंदोलन' फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था।यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। 'किसान सभा' के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।
तेलंगाना आंदोलन : आंध्रप्रदेश में यह आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू किया गया था।
आजादी के बाद हुए किसान आंदोलन:
1947 की आजादी के बाद और अभी दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन के पहले और तीन बड़े किसानों के आंदोलन दर्ज है।
जिसमें से दो आंदोलन वामपंथियों ने खड़े किए थे। पहला था आजादी के तुरंत बाद 1947 से 1951 तक तेलंगाना ( हैदराबाद रियासत) में सांमती अर्थव्यवस्था के खिलाफ आंदोलन।
इसमें छोटे किसानों ने ब्राह्मण जमींदारों खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया था। रेड्डी और कम्मा जैसी सम्पन्न लेकिन पिछड़ी जातियों ने इस आंदोलन का लाभ उठाया और आज वो सत्ता की धुरी हैं।
इसके बाद दूसरा बड़ा किसान आंदोलन 1967 में पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन के रूप में हुआ। इसमें किसानो की मुख्य मांग बड़े काश्तकारों को खत्म करना, बेनामी जमीनों के समुचित वितरण और साहूकारों द्वारा किया जाने वाला शोषण रोकने की थी।
तीसरा आंदोलन 1988 में किसान नेता महेंद्र टिकैत की अगुआई में 5 लाख किसानों को एक सप्ताह तक दिल्ली के बोट क्लब पर इकट्ठा कर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के लिए चुनौती खड़ी कर दी थी। राजीव सरकार ने आंदोलरत किसानों के 35 सूत्री चार्टर को स्वीकार किया, जिसमे किसानों को गन्ने का ज्यादा मूल्य देने, तथा बिजली पानी के बिलों में छूट जैसे बिंदु शामिल थे। लेकिन ये आंदोलन हिंसक नहीं हुए थे।
दिल्ली में तीन काले कृषि कानूनो के खिलाफ जारी आंदोलन में शामिल भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश सिंह टिकैत उन्हीं महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र हैं।
किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत किसानों के लिए संघर्ष का दूसरा नाम बने उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों के बाद देश ने अभी 2020-2021 का सबसे बड़ा किसान आंदोलन देखा है। इसके लिए कई किसान संगठन एक साथ मिलकर संयुक्त किसान मोर्चा बनाया जिन्हे विपक्षी दलों का समर्थन भी है।मांग एक ही है, मोदी सरकार लागू तीनो कृषि कानून वापस लें, क्योंकि ये देश के किसानो के हितों के खिलाफ हैं।
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जितेन्द्र चौरसिया




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