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भारतीय पार्टी सिस्टम की पुनर्समीक्षा: नई दिशाएँ और प्रवृत्तियाँ (आपातकाल के बाद का दौर)

Updated: Mar 6


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भारतीय लोकतंत्र कई पारंपरिक राजनीतिक सिद्धांतों को खारिज करता है, खासकर भारत में पार्टी सिस्टम को समझने के संदर्भ में। भारत में राजनीतिक दलों की संरचना और उनका विकास सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों से प्रभावित होता है, जिसे पश्चिमी सिद्धांतों में समेटना मुश्किल है।

जनता दल का विघटन और क्षेत्रीय दलों का उदय भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण घटनाएँ रहीं। वी.पी. सिंह सरकार के पतन के बाद विभिन्न क्षेत्रीय दल उभरे, जिनमें इंडियन नेशनल लोक दल (INLD), बीजू जनता दल (BJD), राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और समाजवादी पार्टी (SP) शामिल हैं। ये दल मूल रूप से कांग्रेस विरोधी राजनीति से निकले, लेकिन बाद में जातीय और व्यक्तिगत नेतृत्व मे केंद्रित हो गए।


बिहार और उत्तर प्रदेश में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने सामाजिक न्याय और मुस्लिम-यादव (MY) गठबंधन को अपनी राजनीति का आधार बनाया, जबकि रामविलास पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) बनाकर गैर-ओबीसी दलितों का नेतृत्व किया। उत्तर प्रदेश में बसपा दलितों की प्रमुख आवाज बनी।

इन सभी दलों की राजनीति कांग्रेस विरोध पर केंद्रित थी, लेकिन समय के साथ वे भी व्यक्तित्व आधारित और वंशवादी राजनीति की ओर बढ़ गए। इस प्रकार, भारत में पार्टी सिस्टम निरंतर बदल रहा है, जो सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप विकसित होती है। दक्षिण भारत में क्षेत्रीय पार्टियों का उदय विभिन्न कारणों से हुआ।


केरल में वामपंथी दलों ने कांग्रेस को चुनौती दी, जबकि तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति हावी रही।

द्रविड़ राजनीति जस्टिस पार्टी और आत्म-सम्मान आंदोलन से निकली, जो आर्यों के वर्चस्व, ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था और हिंदी भाषा के विरोध पर आधारित थी।

पेरियार ने इस आंदोलन की अगुवाई की, लेकिन बाद में उन्होंने पार्टी की कमान अपने परिवार को सौंपने की कोशिश की, जिससे अन्नादुरई ने 1949 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) बनाई। बाद में एम. जी. रामचंद्रन (MGR) ने अलग होकर AIADMK की स्थापना की। DMK और AIADMK ने तमिलनाडु की राजनीति में बारी-बारी से सत्ता संभाली, लेकिन दोनों ही दल वंशवादी राजनीति में फंस गए। करुणानिधि ने अपने बेटे स्टालिन को DMK का उत्तराधिकारी बनाया, जबकि AIADMK में जयललिता नेता बनीं।


क्षेत्रीय दलों की विशेषताएँ

1.कांग्रेस के विरोध में उभरे, लेकिन बाद में खुद वंशवादी हो गए।

2.जातिगत राजनीति को बढ़ावा दिया और स्थानीय भावनाओं को भुनाया।

3.राष्ट्रीय दलों की तुलना में राज्य-स्तरीय मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दिया।

4.गठबंधन राजनीति को जन्म दिया, जिससे सरकारें अस्थिर होने लगीं।


अब राजनीति में जाति और समुदाय आधारित दल बढ़ रहे हैं, जिनका उद्देश्य अपने जाति-समुदाय का राजनीतिक लाभ सुनिश्चित करना है।

उदाहरण : अपना दल (उत्तर प्रदेश) – सिर्फ दो सीटें जीतकर भी केंद्र में मंत्री पद पाया।

आरएलएसपी (बिहार) – उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी, जो सिर्फ कुशवाहा समुदाय पर केंद्रित है।

हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (बिहार) – जीतनराम मांझी की पार्टी, जो उनकी जाति के समर्थन पर निर्भर है।

भारत में राष्ट्रीय दलों की विफलता के कारण क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ है, लेकिन यह कहना कठिन है कि यह पूरी तरह उनकी असफलता का संकेत है। जातिगत राजनीति और सत्ता प्राप्ति के लिए विभिन्न पार्टियाँ जाति-आधारित समर्थन जुटाने में लगी हुई हैं। टीवी बहसें और मीडिया भी इस ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हैं।

भारतीय राजनीति मुख्य रूप से पाँच प्रकार की पार्टियों में विभाजित की जा सकती है:

वैचारिक पार्टियाँ – जिनका एक स्पष्ट दृष्टिकोण और विचारधारा होती है, जैसे भाजपा, समाजवादी, और

कम्युनिस्ट पार केंद्रित पार्टियाँ – जिनका मुख्य उद्देश्य केवल चुनाव जीतना और सत्ता प्राप्त करना होता है, बिना किसी ठोस वैचारिक दृष्टिकोण के। आंदोलन आधारित पार्टियाँ – जो किसी विशेष आंदोलन से उभरी हैं, जैसे द्रविड़ पार्टियाँ, असम गण परिषद, और आम आदमी पार्टी।

पारिवारिक पार्टियाँ – जहाँ पार्टी का पूरा नियंत्रण एक ही परिवार के हाथ में होता है, जैसे शिवसेना, समाजवादी पार्टी, और राष्ट्रीय जनता दल।

जाति और समुदाय आधारित पार्टियाँ – जो विशेष जाति या समुदाय के समर्थन से बनी हैं, जैसे निषाद पार्टी, अपना दल, और हिंदुस्तान अवामी मोर्चा।

भारतीय राजनीति में यह प्रवृत्ति तब तक जारी रहने की संभावना है जब तक कि ऐसे दलों के जन्म को नियंत्रित करने के लिए कोई संस्थागत तंत्र मौजूद नहीं होता। यह तर्क कि खंडित संसदीय राजनीति एक अधिक जीवंत और उत्तरदायी सरकार प्रदान करती है, एक बड़ी भ्रांति साबित हुआ है। दिलचस्प बात यह है कि कोई नहीं जानता कि यह खंडित व्यवस्था कहां जाकर रुकेगी। आज जाति और संप्रदाय की राजनीति हो रही है, तो कल यह उप-जाति और उप-संप्रदाय तक पहुंच सकती है। समाज का जातिगत आधार पर विखंडन और विचारधारा-प्रधान राजनीति का अभाव जाति और समुदाय केंद्रित दलों को जन्म देता रहेगा, जो आगे चलकर राजनीति के ध्रुवीकरण को बढ़ावा देंगे।


लेखक - संगीत कुमार रागी

अनुवादक - राहुल दुबे

उद्दरण -बिहार जर्नल ऑफ पब्लिक ऐड्मिनिस्ट्रैशन (संस्करण .21 नंबर 2 जुलाई -दिसम्बर , 2024)



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