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17 फरवरी, 1852: जब शिक्षा का दीप जला

आज से ठीक 173 साल पहले, एक छोटे से स्कूल में बड़ा इतिहास लिखा जा रहा था। महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा स्थापित विद्यालय का सार्वजनिक निरीक्षण हो रहा था। लेकिन अफसोस, समाज की सोच अभी तक जड़ थी। निरीक्षण के दौरान अधिकारियों ने कहा –

"यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के नागरिक अभी तक महिलाओं की शिक्षा की आवश्यकता को नहीं समझ पाए हैं।"


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इस बीच, जज ब्राउन ने जो कहा, वह सैकड़ों सालों से दबे एक सच को उजागर कर रहा था –

"महिलाओं की शिक्षा से पारिवारिक सुख और परिवार संस्था की उपयोगिता मजबूत होगी।"

जरा सोचिए, उस दौर में जब लड़कियों को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने तक की इजाज़त नहीं थी, जब शिक्षा सिर्फ ऊंची जातियों और पुरुषों तक सीमित थी, तब एक व्यक्ति ने समाज की जड़ता को तोड़ने की ठानी। फुले और सावित्रीबाई ने जिस हिम्मत और संघर्ष से लड़कियों और समाज के वंचित वर्गों के लिए शिक्षा की राह बनाई, वह किसी चमत्कार से कम नहीं था।

शिक्षा ने महिलाओं को सिर्फ किताबों से नहीं जोड़ा, बल्कि उन्हें अपने अस्तित्व को पहचानने की ताकत दी। उन्होंने सवाल पूछने शुरू किए, उन परंपराओं को चुनौती दी जो उन्हें कमजोर बनाए रखती थीं। वे जानने लगीं कि उनका भी अस्तित्व है, उनके भी अधिकार हैं।


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