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ग्रामीण संघर्षों से शहरी वास्तविकताओं तक: दलित प्रवासियों के श्रम बाजार के अनुभव

यह शोधपत्र दलित प्रवासियों के ग्रामीण से शहरी जीवन की ओर जाने के कारणों और उनके श्रम बाजार में अनुभवों का विश्लेषण करता है। अध्ययन से पता चलता है कि जातिगत भेदभाव और हिंसा के कारण दलित समुदाय के लोग ग्रामीण इलाकों से पलायन करने को मजबूर होते हैं। हालांकि, शहरी क्षेत्रों में जातिवाद सतह पर कम दिखता है, लेकिन यह समाप्त नहीं होता। विशेष रूप से निर्माण उद्योग में काम करने वाले दलित प्रवासी जातिगत असमानताओं से जूझते रहते हैं।

भारत में अधिकांश श्रमिक प्रवासन ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों की ओर होता है, जिसका मुख्य कारण रोजगार की तलाश होता है। दलित समुदाय की बात करें तो वे अक्सर भूमिहीन होते हैं और कृषि कार्य में ही सीमित रहते हैं। यह भूमि हीनता और कृषि पर अत्यधिक निर्भरता उन्हें आर्थिक रूप से अस्थिर बना देती है। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण से निर्माण उद्योग का विस्तार हुआ, जो कम कौशल वाले श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर प्रदान करता है, लेकिन इसमें भी जातिगत भेदभाव बना रहता है।

अध्ययन में पाया गया कि दलितों को अक्सर असंगठित श्रम बाजार में ही जगह मिलती है। जातिगत संरचनाएं उन्हें कुशल और उच्च पदों तक पहुंचने से रोकती हैं। निर्माण उद्योग में, जहां कार्यकर्ता जाति की पहचान को छिपाने की कोशिश करते हैं, फिर भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। मालिक और ठेकेदार ऊंची जातियों से होते हैं, जबकि मजदूरों के रूप में दलित ही अधिक संख्या में होते हैं।

शोध में दलित प्रवासियों के व्यक्तिगत अनुभवों को शामिल किया गया है। कई दलित श्रमिकों ने साझा किया कि कैसे उन्हें पानी तक पीने से मना कर दिया गया, या उनकी मजदूरी समय पर नहीं दी गई। महिलाओं के मामले में यह भेदभाव और भी अधिक गंभीर हो जाता है। उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है और अक्सर यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।

अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ कि दलित प्रवासी न केवल आर्थिक कारणों से, बल्कि सामाजिक कारणों से भी पलायन करते हैं। जातिगत उत्पीड़न, सामाजिक बहिष्कार और हिंसा के चलते उन्हें गांव छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कई मामलों में, अंबेडकर के विचारों ने भी दलितों को शहरी जीवन अपनाने के लिए प्रेरित किया है। अंबेडकर ने गांवों को 'संकीर्ण मानसिकता और जातिगत अत्याचार का गढ़' कहा था।

हालांकि शहरों में जातिगत पहचान को छुपाने की संभावनाएं अधिक होती हैं, लेकिन फिर भी जातिवाद पूरी तरह से खत्म नहीं होता। मजदूरी, आवास और कार्यस्थलों पर भेदभाव के रूप में यह जारी रहता है। दलितों को आमतौर पर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर किया जाता है, जहां उन्हें बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिलतीं।

अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ कि जातिगत नेटवर्क शहरी प्रवास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि ऊंची जातियों के पास मजबूत सामाजिक और आर्थिक नेटवर्क होते हैं, जो उन्हें अच्छी नौकरियों में स्थापित करने में मदद करते हैं, लेकिन दलित समुदाय का नेटवर्क सीमित होता है। यह उन्हें केवल असंगठित और निम्न वेतन वाले कार्यों तक सीमित रखता है।

महिला दलित प्रवासियों को दोहरी असमानता का सामना करना पड़ता है—एक ओर वे जातिगत भेदभाव से पीड़ित होती हैं और दूसरी ओर पितृसत्ता के कारण उनके लिए अवसर सीमित हो जाते हैं। कई मामलों में, अकेली महिलाओं को शारीरिक शोषण का भी सामना करना पड़ता है, और उनके पास इसकी शिकायत करने के लिए कोई मजबूत समर्थन प्रणाली नहीं होती।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि शहरी श्रम बाजार में ऊंची जातियों का प्रभुत्व बना रहता है। निर्माण स्थलों और असंगठित क्षेत्र में दलित प्रवासी श्रमिकों को अक्सर मजदूरी न देने, अधिक घंटे काम कराने, और बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के छोड़ देने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रवासन ने कुछ दलित परिवारों की स्थिति में सुधार किया है, लेकिन सामाजिक दृष्टि से वे अभी भी हाशिए पर हैं। उन्हें अपनी पहचान छिपाने या जातिगत भेदभाव को सहने के लिए मजबूर किया जाता है। जातिगत श्रेष्ठता की भावना शहरी समाज में भी बनी हुई है, जिससे दलित प्रवासी पूर्ण नागरिकता के अधिकारों से वंचित रह जाते हैं।



साथ ही, जातिगत भेदभाव केवल कार्यस्थल तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सार्वजनिक स्थानों और बाजारों में भी देखा जाता है। कई प्रवासी श्रमिकों ने बताया कि उन्हें दुकानों के बाहर खड़ा होने या किसी ऊंची जाति के व्यक्ति के घर में काम करने से मना कर दिया जाता है। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि भले ही शहरीकरण ने कुछ सामाजिक बंधनों को कमजोर किया हो, जातिगत पूर्वाग्रह अभी भी मजबूत हैं।

अध्ययन यह निष्कर्ष निकालता है कि दलित प्रवासियों के लिए शहरीकरण ने आंशिक रूप से अवसरों के द्वार खोले हैं, लेकिन वे अभी भी सामाजिक और आर्थिक असमानता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। उनके श्रम को शहरी अर्थव्यवस्था में स्वीकार किया जाता है, लेकिन उनके अधिकारों को मान्यता नहीं दी जाती।

शोध यह सुझाव देता है कि केवल आर्थिक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए ठोस नीतिगत बदलाव आवश्यक हैं। श्रम कानूनों में सुधार कर, सामाजिक सुरक्षा बढ़ाकर, और जातिगत भेदभाव के खिलाफ सख्त प्रवर्तन उपाय लागू करके ही प्रवासी दलित श्रमिकों की स्थिति में सुधार किया जा सकता है।

अंत में, शोध बताता है कि प्रवासन दलित समुदाय के लिए केवल एक आर्थिक निर्णय नहीं है, बल्कि यह उनकी सामाजिक मुक्ति की एक रणनीति भी है। हालांकि शहरों में भी उन्हें चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन वे जातिगत उत्पीड़न से बचने और अपने परिवारों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने की आशा में इस प्रवास को अपनाते हैं।


लेखक - उपेंद्र सोनपिंपल , विक्की नंदगाये 

अनुवादक - राहुल दुबे

उद्दरण - द इंडियन जर्नल ऑफ लेबर इकनॉमिक्स (संस्करण : 24 जनवरी 2025)

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