भारत में जाति और जाति-आधारित आरक्षण का मुद्दा :
- Rahul Dubey
- Mar 6
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भारत में जाति व्यवस्था एक गहरी सामाजिक संरचना है, जो सदियों से चली आ रही है और आज भी समाज और राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भले ही भारतीय संविधान ने छुआछूत को समाप्त कर दिया और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए कई कानून बनाए, फिर भी जाति आधारित पहचान आज भी राजनीति, नीतियों और चुनावी रणनीतियों को प्रभावित कर रही है। भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में जाति का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहाँ राजनीतिक दल अक्सर जातिगत आधार पर समर्थन जुटाने की कोशिश करते हैं। यह जातिगत राजनीति न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी देखी जा सकती है, जहाँ लोग अपनी जातीय पहचान के आधार पर राजनीतिक दलों का समर्थन करते हैं।
आरक्षण एक संवैधानिक नीति है, जिसका उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से पिछड़े और वंचित समुदायों को आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करना है। इस नीति की शुरुआत ब्रिटिश शासनकाल में हुई थी, लेकिन इसे स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के तहत कानूनी रूप से लागू किया गया। अनुच्छेद 15, 16 और 46 के तहत सार्वजनिक नौकरियों और शिक्षा में अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए आरक्षण प्रदान किया गया। 1980 में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को भी इसमें शामिल किया गया, जिससे भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया। इसके अलावा, 2019 में सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए भी 10% आरक्षण लागू किया, जिससे यह नीति और अधिक व्यापक हो गई।
जाति आधारित राजनीति भारत में चुनावी प्रक्रियाओं को काफी हद तक प्रभावित करती है। कई राजनीतिक दल जाति के आधार पर समर्थन जुटाने की कोशिश करते हैं, जिससे जातिगत राजनीति और वोट बैंक की रणनीति को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जातिगत समीकरण चुनावी नतीजों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विभिन्न जाति-आधारित दल, जैसे कि बहुजन समाज पार्टी (BSP), राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और अन्य क्षेत्रीय दल, जातिगत समर्थन के आधार पर अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं। शहरीकरण और वैश्वीकरण के बावजूद, जाति अभी भी समाज में गहराई से जमी हुई है और सामाजिक तथा आर्थिक अवसरों को प्रभावित करती है।
आरक्षण नीति को लेकर समाज में लगातार बहस होती रही है। इसके समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने और ऐतिहासिक अन्याय को ठीक करने के लिए आवश्यक है। उनका तर्क है कि आरक्षण से वंचित समुदायों को शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बेहतर अवसर मिलते हैं, जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार होता है। आरक्षण के कारण कई दलित और पिछड़े वर्ग के लोग उच्च पदों तक पहुँचने में सफल हुए हैं, जिससे समाज में समावेशिता और समानता को बढ़ावा मिला है।
हालांकि, आरक्षण के विरोधियों का कहना है कि यह जातिगत भेदभाव को और अधिक बढ़ावा देता है और योग्यता आधारित अवसरों को बाधित करता है। उनके अनुसार, कई बार आरक्षण का लाभ उन्हीं लोगों को मिलता है जो पहले से ही सशक्त हैं, जबकि सबसे जरूरतमंद लोग इससे वंचित रह जाते हैं। इसके अलावा, कुछ लोग मानते हैं कि आरक्षण से सामाजिक विभाजन बढ़ता है और यह जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा देता है। वे यह भी तर्क देते हैं कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण का आधार केवल जाति न होकर उनकी आर्थिक स्थिति होनी चाहिए, जिससे वास्तविक जरूरतमंदों को लाभ मिल सके।

इस नीति से जुड़ी कई चुनौतियाँ भी सामने आई हैं, जैसे कि कुछ प्रभावशाली वर्गों द्वारा इसका दुरुपयोग, आर्थिक रूप से कमजोर लेकिन गैर-आरक्षित समुदायों के लिए कम अवसर, और सामाजिक एकता में बाधा। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि आरक्षण को केवल जाति के बजाय आर्थिक आधार पर लागू किया जाना चाहिए, इसे एक निश्चित समय-सीमा तक सीमित रखा जाए और इसे केवल जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाया जाए। इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि कई राज्यों में आरक्षण नीति के लागू होने के बावजूद वंचित वर्गों की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। इसीलिए, इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसके कार्यान्वयन में सुधार की आवश्यकता है।
जाति आधारित राजनीति और आरक्षण नीति के बीच संबंध को समझना जरूरी है। कई राजनीतिक दल आरक्षण के मुद्दे का उपयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं, जिससे यह एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। कुछ दल आरक्षण के विस्तार की माँग करते हैं, जबकि कुछ इसके खिलाफ हैं। यह मुद्दा कई बार बड़े स्तर पर सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों को जन्म देता है। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद 1990 में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे, जिनमें कई छात्रों ने आत्मदाह तक कर लिया था। इसी तरह, हाल के वर्षों में भी आरक्षण के खिलाफ और पक्ष में कई आंदोलन हुए हैं, जैसे कि पटेल, मराठा और जाट समुदायों द्वारा आरक्षण की माँग को लेकर किए गए आंदोलन।
इसके अलावा, आरक्षण नीति के प्रभावों का आकलन करना भी महत्वपूर्ण है। यह देखा गया है कि आरक्षण ने कई वंचित समुदायों को शिक्षा और रोजगार के बेहतर अवसर प्रदान किए हैं, लेकिन यह भी सच है कि यह सभी जरूरतमंदों तक नहीं पहुँच पाया है। कई बार देखने में आया है कि एक ही परिवार की पीढ़ियाँ आरक्षण का लाभ ले रही हैं, जबकि वास्तव में जरूरतमंद लोग इससे वंचित रह जाते हैं। इसके अलावा, कुछ मामलों में आरक्षित वर्गों के लोगों को भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है, जिससे सामाजिक समरसता पर प्रभाव पड़ता है।
इस संदर्भ में, कुछ सुधार प्रस्तावित किए जा सकते हैं। पहला, आरक्षण का आधार केवल जाति न होकर आर्थिक स्थिति भी होनी चाहिए, ताकि वास्तव में जरूरतमंद लोगों को इसका लाभ मिल सके। दूसरा, आरक्षण को एक निश्चित समय-सीमा के लिए लागू किया जाना चाहिए और समय-समय पर इसकी समीक्षा होनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह सही दिशा में कार्य कर रहा है। तीसरा, सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के साथ-साथ आर्थिक सुधार और रोजगार सृजन की नीतियों को भी बढ़ावा देना चाहिए, जिससे सभी समुदायों को समान अवसर मिलें।
कुल मिलाकर, जाति आधारित राजनीति और आरक्षण नीति भारत के लोकतंत्र के महत्वपूर्ण पहलू बने हुए हैं। हालाँकि, इसमें सुधार की आवश्यकता है ताकि यह सच में समाज के जरूरतमंद तबकों को लाभ पहुँचा सके और देश के विकास में सकारात्मक योगदान दे सके। आरक्षण को अधिक प्रभावी बनाने और सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए नीतियों में संशोधन आवश्यक है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहाँ सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ गहरी हैं, वहाँ आरक्षण और सामाजिक नीतियों का संतुलन बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह महत्वपूर्ण है कि आरक्षण नीति का लाभ सही लोगों तक पहुँचे और यह समाज को एकजुट करने में सहायक बने, न कि विभाजन को और गहरा करे।
लेखक - डॉ . पूनम देवी
अनुवादक - राहुल दुबे
उद्दरण - इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मल्टीडिसप्लनेरी एजुकेशनल रिसर्च (संस्करण :14 जनवरी : 2025)
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