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मोदी युग में भारतीय मुसलमानों के सामने सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ:

भारत एक ऐसा देश है जहाँ विविधता उसकी पहचान है। यहाँ अनेक धर्म, भाषाएँ, संस्कृतियाँ और परंपराएँ सदियों से एक साथ विकसित हुई हैं। भारतीय संविधान ने देश को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया है, जिसका अर्थ है कि सरकार किसी भी धर्म को न तो बढ़ावा देगी और न ही किसी विशेष समुदाय के साथ भेदभाव करेगी। लेकिन क्या भारत में वास्तव में धर्मनिरपेक्षता और समानता व्यावहारिक रूप से लागू हो पाई है?  हम यहाँ  विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करेंगे और यह समझने का प्रयास करेंगे कि सरकार द्वारा किए गए प्रयास कितने प्रभावी रहे हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 तक नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव न हो और सभी को अपनी आस्था का पालन करने का समान अधिकार मिले। हालाँकि, व्यवहारिक दृष्टि से कई ऐसे पहलू हैं जहाँ धर्मनिरपेक्षता और समानता की कसौटी पर भारत अब भी संघर्ष करता दिखाई देता है। मुस्लिम समुदाय को सामाजिक-आर्थिक विकास के मामले में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि संविधान में दिए गए अधिकारों को वास्तविक जीवन में लागू करने में अभी भी बहुत काम किया जाना बाकी है।

भारतीय मुस्लिम समुदाय, जो देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है, कई आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। शिक्षा किसी भी समुदाय की प्रगति के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारक होती है। हालाँकि, मुस्लिम समुदाय की साक्षरता दर अन्य समुदायों की तुलना में कम बनी हुई है। इसका मुख्य कारण आर्थिक समस्याएँ, जागरूकता की कमी और कभी-कभी सामाजिक भेदभाव भी है। कई मुस्लिम परिवार गरीबी के कारण अपने बच्चों को स्कूल भेजने में असमर्थ होते हैं। इसके अलावा, मदरसा शिक्षा प्रणाली को मुख्यधारा की शिक्षा प्रणाली से जोड़ने के लिए प्रभावी प्रयासों की आवश्यकता है।

मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग असंगठित क्षेत्र में कार्य करता है, जहाँ रोजगार की सुरक्षा कम होती है। सरकारी नौकरियों और निजी क्षेत्र में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत कम है। छोटे व्यापारियों और कारीगरों को भी बाजार की प्रतिस्पर्धा और वित्तीय सहायता की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता भी मुस्लिम समुदाय के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। कई मुस्लिम बहुल इलाकों में अच्छी चिकित्सा सुविधाओं की कमी है, जिससे वे समय पर स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त नहीं कर पाते। इसके अलावा, गरीबी के कारण भी कई परिवार उचित इलाज कराने में असमर्थ होते हैं।

भारत सरकार ने मुस्लिम समुदाय के उत्थान के लिए कई योजनाएँ चलाई हैं, जिनमें प्रधानमंत्री जन धन योजना, शिक्षा संबंधी योजनाएँ और स्वरोजगार योजनाएँ शामिल हैं। प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत गरीब मुस्लिम परिवारों को बैंकिंग सेवाओं से जोड़ा गया, जिससे वे आर्थिक रूप से सशक्त हो सकें। मुस्लिम छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजनाएँ लागू की गई हैं, जिससे उनकी उच्च शिक्षा की संभावनाएँ बढ़ सकें। छोटे व्यवसायों को बढ़ावा देने के लिए लोन और वित्तीय सहायता योजनाएँ चलाई गई हैं। हालाँकि, इन योजनाओं का जमीनी स्तर पर प्रभाव सीमित ही देखा गया है। इसका मुख्य कारण सही क्रियान्वयन की कमी, जागरूकता का अभाव और कई बार भेदभाव की प्रवृत्ति भी रही है।

मुस्लिम समुदाय की स्थिति को सुधारने के लिए शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाना आवश्यक है। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अधिक स्कूल और कॉलेज स्थापित किए जाएँ। मदरसों में आधुनिक शिक्षा को शामिल किया जाए, जिससे छात्र मुख्यधारा की शिक्षा प्रणाली से जुड़ सकें। रोजगार के अवसरों में वृद्धि होनी चाहिए और सरकारी व निजी क्षेत्रों में मुस्लिम युवाओं के लिए अधिक अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। कौशल विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जिससे वे विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने के योग्य बन सकें। स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच बढ़ाने के लिए मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और मुफ्त चिकित्सा सेवाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए। मुस्लिम व्यापारियों और उद्यमियों को आसान ऋण योजनाएँ और सरकारी सहायता दी जानी चाहिए, जिससे वे अपने व्यवसाय को बढ़ा सकें। समाज में धर्म के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए और सभी धर्मों के बीच आपसी सहयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

भारत में धर्मनिरपेक्षता और समानता केवल संविधान में दिए गए शब्दों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि इसे व्यवहारिक रूप में लागू किया जाना चाहिए। मुस्लिम समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए सरकार, समाज और स्वयं मुस्लिम समुदाय को मिलकर प्रयास करने होंगे। जब तक शिक्षा, रोजगार और जीवन स्तर में व्यापक सुधार नहीं किया जाता, तब तक वास्तविक समानता का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल होगा। इसलिए, यह आवश्यक है कि सरकार की योजनाएँ केवल कागजों तक सीमित न रहें, बल्कि वे वास्तविक रूप से उन लोगों तक पहुँचें जिन्हें उनकी सबसे अधिक आवश्यकता है। शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के साथ-साथ जागरूकता और सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देकर ही भारत एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में उभर सकता है।

लेखक - वाजीद अली एण्ड आयेश आलम

अनुवादक - राहुल बनर्जी

उद्दरण -ऐड्वांस सोशल साइंस आर्कहीवेस जर्नल (संस्करण - 3 ,नंबर -1 , जनवरी

-मार्च , 2025 , पेज नंबर 1707-1721 )

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