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न्याय किसी संस्था के बूते की बात नहीं है, न्यायसंगत सिर्फ़ समाज होता है।

Updated: May 8, 2021

समाज ही मानव सभ्यता का सबसे ताकतवर व्यवस्था है। सरकार, न्यायालय, प्रशासन ये सब त्वरित और क्षणभंगुर हैं। इन संस्थानों की कार्य दिशा इनके सामाजिक चेतना पर निर्भर करती है। यदि सामाजिक चेतना न्यायसम्मत है तो न्याय होता है और यदि समाज में कोई कुंठा ये क्रोध व्याप्त है तो उस समाज की कोई भी संस्था विवेकपूर्ण कार्य नहीं कर सकती।

अमेरिकी के पूर्व पुलिस अफ़सर १० सदस्यों की ज्यूरी ने इन पुलिस अफ़सरों को नागरिक अधिकार के हनन, आत्म रक्षा के अधिकार के हनन, नृशंस हत्या, सरकारी शक्ति का दुरुपयोग और मानव जाती में ग़ैरबराबरी देखने का आरोपी पाया है।

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स्वदेश का रुख़ करें तो दाभोलकर हत्याकांड के मुख्य आरोपी विक्रम भावे को दो साल हिरासत में रखने के बाद आज बेल दे दी गयी। गौरी लंकेश के हत्यारे पकड़े नहीं गए और २०१४ से आज तक जितनी भी भीड़ के द्वारा हत्या की गयी हैं इनमे एक भी गिरफ़्तारी नहीं हुई है। बल्कि कई हत्यारों को इस देश के सांसद फूलों का हार पहना कर स्वागत करते रहे हैं। इसके उलट सोनी सोरी जैसी आदिवासी अध्यापिका को पुलिस थाने में बलात्कार करने वाले पुलिस अफ़सर को देश का राष्ट्रपति सम्मान भेंट करता है।


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सोनी को वर्षों जेल में रखने के बाद सबूतों के अभाव में रिहा किया जाता है। कफ़ील खान जैसे डॉक्टर को देश द्रोही करार देकर महीनो जेल में रखा जाता है और फिर सबूतों के अभाव में छोड़ दिया जाता है लेकिन तब तक भारतीय समाज साबित कर चुका होता है की ये लोग देश द्रोही हैं।


आज चुनाव आयोग के वकील मोहित डी राम ने सप्रीम कोर्ट में अपना इस्तीफ़ा देते हुए कहा है कि मेरी अंतर चेतना अब चुनाव आयोग की पैरवी करने की गवाही नहीं दे रही है। एक बात के हज़ार मतलब हैं, जिस बेहुदगी से हालिया चुनावों में भारत की जनता को कोरोना संक्रमण से रौंदा गया है इसकी कल्पना भी सभ्य समाज नहीं कर सकता है। मौजूदा महामारी में बद से बदत्तर होती स्थिति, सरकार की लापरवाही और नसमझी की वजह लगातार घिरती जा रही सरकार की अदालत में पैरवी कर रहे वकील जिस बचकानी दलीलों का सहारा ले रहे है और जिस शर्मिंदगी से देश का मीडिया इस पूरी घटना को छिपाने में कामयाब हो रहा है उसमें कहीं भी इंसाफ़ की गुंजाइश नज़र नहीं आती है।



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दरसल, जातिवाद आरक्षण, मुस्लिम हिंदू, लव जिहाद, अनपढ़ सरफिरों को हमारा शासक बना देती है और फिर समाज में ऐसा ज़हर फैलने लगता है की सिनेमा कलाकार और खिलाड़ी हस्तियाँ भी नफ़रत के हवन में घी डालने लगते हैं। और जो भी इस नफ़रत को हवा ना देकर इंसानों के लिए लिए ऑक्सिजन की जुगत में लग जाता है। ये सामाजिक ढाँचा उसे अपराधी साबित कर डेटा है। इसी समाज के सर्वोचय न्यायालय ने दो इंसानों को एक जैसी घटना में एक जैसी भावना का हवाला देते हुए अलग अलग सजा सुनाई है। एक पढ़े लिखे प्रफ़ेसर को मौत की सजा दी गयी और लिप्त अपराधी को बइज्जत बारी कर दिया गया।

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इसी समाज में न्यायिक संस्था की मूर्तियों की हत्या करने वाले के ख़िलाफ़ कोई केस भी दर्ज नहीं होता है। फाँसी दिए गए इस अपराधी और बइज्जत बरी किए गए दूसरे अपराधी के संदर्भ में सर्वोच्च्य न्यालय कहती है “सबूतों के अभाव में किंतु समाज के संयुक्त चेतना में” क व्यक्ति अपराधी है और उसे फाँसी की सजा सुनाई जाती है। वहीं ख व्यक्ति के लिए अदालत कहती है “सबूतों के अभाव में और समाज के संयुक्त चेतना में” ख व्यक्ति अपराधी नहीं है इस लिए उसे बरी किया जाता है। ये क और ख व्यक्ति कहने का साहस मुझमें नहीं है। जिसने आख़िरी व्यक्ति के इस क और ख की जगह नाम लिखने की कोशिश की थी वो बहुत बड़ा जज होने के बावजूद एक होटल में संदिग्ध हालातों में मृत पाया गया था। खुद उसकी हत्या की फ़ाइल भी अभी तक अदालत में दाखिल नहीं हुई है।


दरसल मामला न्यायिक संस्था का, जज और वकीलों की कमी का, लंबित मामलों का या ऐसे किसी भी आँकड़ेदार साक्ष्यों का नहीं है। मामला है समाज की मूक का सहमति है। इसराइल ने नाज़ी नेताओं को सजा देने में जिस न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल किया था वो न्यायिक संस्था उस समाज की संयुक्त चेतना का निर्माण था। ६० लाख लोगों का खून सूखने के बाद जागा था वो समाज! क्या हमें भी इतनी ही आहुति देनी होंगी?

 
 
 

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